Sunday, August 5, 2012

'औरत जो नदी है' पर राकेश बिहारी



सारा आकाश तुम्हारा है....




जयश्री राय का नवीनतम उपन्यास

प्रि दामिनी,

तुम से दो बार मिल चुका हूं, यं तो पहली मुलाकात में भी तुम किसी अजनबी की तरह नहीं लगी थी लेकिन इस दूसरी मुलाकात के बाद तो जैसे तुम बहुत अपनी-सी लगने लगी हो, इसीलिये 'तुम' कहने की छूट ले रहा हूं, उम्मीद है इसका बुरा नहीं मानोगी.

पहली बार जब तुम्हें हंस के पन्नों पर एक कहानी की नायिका के रूप में देखा था, मेरे भीतर अपूर्णता की कुछ लकीरें उग आई थी, मुझे कचोटती सी. मेरे मन में तुम्हारी मानस-मां यानी जयश्री से कुछ शिकायतें थी कि तुम्हें इस तरह अधूरा-सा क्यों छोड़ दिया, कि तुम्हें और विस्तार क्यों नहीं दिया....हालांकि तुम्हारी जयजयकार तब भी हो रही थी, लेकिन मेरे मन में उन जयकारों के प्रति एक असहमति का भाव था, तुमसे सहानुभूति होने हुए भी. एक दुख भी, कि जयकारा लगानेवाले ये लोग तुम्हारी पीड़ा को समझ नहीं पा रहे बल्कि तुम्हें तुम्हारी ही मान्यताओं के एकदम विपरीत खड़ा कर तुम्हारे अंतस का कुपाठ रच रहे हैं, तुमने हंस (दिसम्बर 2011) का वह संपादकीय तो देखा ही होगा, जिसमें तुम्हारे प्रशंसक राजेन्द्र जी ने कहा था—''जयश्री राय की 'औरत जो नदी है' में कहानी पुरुष की तरफ से है मगर वहां पुरुष के दर्पण में भी स्त्री खुद को ही देखती है. देह और सेक्स के अपने अनुभवों को अपनी पोर-पोर में जीती औरत जिन खुले शब्दों में अपनी कामनाओं, वासनाओं को शब्द देती है और असंतुष्ट रह जाने के कचोट से झुंझलाती है वह साथी पुरुष को भी लज्जा में डुबो देता है. हर बार संभोग-यात्रा में पीछे छूट जाता पुरुष उसे धोखा देता लगता है. वह पाती है कि पुरुष सिर्फ लिंग है जबकि सेक्स में स्तरी बहती नदी के रूप में अपनी अन्तर्यात्राओं का प्रस्थान बिंदु. कहानी बेहद खूबसूरत भाषा में स्त्री की दृष्टि से संभोग सुख का फिर-फिर जीना है. ''राजेन्द्र जी एक सजग पाठक हैं लेकिन उनकी अतिरिक्त चैतन्यता कई बार उन्हें ऐसे मनमाने पाठ की तरफ धकेलती है....तब मेरे मन में कई सवाल उठे थे....क्या तुम्हारी यह कहानी सचमुच एक औरत की निगाह में संभोग-सुख का बार-बार जीना भर है? क्या सचमुच तुम्हारे अंदर एक झुंझलाहट है जो देह के स्तर पर असंतुष्ट रह जाने के कारण उत्पन्न हुई है? और इस झुंझलाहट ने तुम्हारे पुरुष साथी अशेष को भी लजा दियाहै?....

नहीं, ऐसा तो कुछ भी नहीं तुम्हारी जि़ंदगी में। तुम्हारे मन में तो देह को लेकर कोई वर्जना है और ही उसे लेकर कोई असंतोष। तुम देह को एक ऐसे उत्सव की तरह जीना चाहती हो बल्कि यूं कहें कि जीती हो जिसमें पुरुष और स्त्री दोनों की भूमिका बराबर की होती है, किसी की कम किसी की ज्यादा। एक दूसरे की खुशी के लिए एक दूसरे में खुद को विसॢजत कर देने की एक ऐसी प्रक्रिया जो शारीरिक ही नहीं आत्मिक भी है। हां, प्रेम के भुलावे में जमाने से छली जाती एक स्त्री की आत्मचेतना तुम्हारे भीतर जरूर चमकती दिखती है। टूटन, बिखराव और उससे उत्पन्न एक तिक्तता भी। और वह अशेष....जिसने तुमको लगातार छलने की कोशिश की....? तुम्हारी उपेक्षा और तुम्हारे तंज से तिलमिला कर अंतत: आत्मस्वीकृति से ही तो भर जाता है ! फिर इस मानसिक टूटन, तंज और आत्मस्वीकृति को यौन असंतुष्टि से उत्पन्न झुंझलाहट और उसकी अभिव्यक्ति से लजाये पुरुष का नाम देकर तुम्हारी जयजयकार करने को क्या कहूं? तुम्हारी जि़ंदगी में व्याप्त सारी यंत्रणाओं और विडंबनाओं की तरफ से ध्यान हटा कर पूरी बहस को येन केन प्रकारेण सिर्फ देह तक रिड्यूस कर देना यौनिकता के उन बृहत्तर अर्थ संदर्भों को नकार देना नहीं है, जिसकी जड़ें राजनीति और सत्ता-विमर्श की गहराइयों तक जाती हैं?

तुम्हारी जि़ंदगी का यह औपन्यासिक विस्तार अपने पूरे विन्यास में दरअसल प्रेम, देह, परिवार, जिम्मेदारी, विवाह आदि को लेकर एक बहुकोणीय जिरह है। लेकिन तुम्हारी मानस-मां जयश्री ने जिन बारीक धूप-छांही उपकरणों से तुम्हें रचा है वह पाठकों से एक सजग, अंतरंग और चौकन्ने पाठ की मांग करता है। वरना इस उपन्यास के, खास कर तुम्हारे चरित्र के मनमाने पाठ की कई-कई गुंजाइशें यहां मौजूद हैं, उनके लिए भी जिन्हें तुम खूब-खूब पसन्द आओगी और उनके लिए भी जो तुम जैसी स्त्रियों को दूर से देख कर ही नाक-भौंह सिकोडऩे लगते हैं....इस चौकन्नेपन के अभाव में हो सकता है कुछ स्त्रीवादी विमर्शकार तुम्हें पुरुष दृष्टि से संचालित होने वाली स्त्री भी कह जायें....


कथाकार  जयश्री राय

जीवन में प्रेम का संधान, प्रेम के प्रति तुम्हारी निष्कंप आस्था, अपने साथी और उसकी खुशी के लिए कुछ भी कर गुजर जाने का जज्बा, देह को ही आखिरी गंतव्य मानने की तुम्हारी मान्यता सब मुझे बेतरह खींचते हैं। तुम्हारे उन्मुक्त कुंठारहित व्यवहार और आईने की तरह बोलते व्यक्तित्व में मुझे कई बार अपना चेहरा भी दिख जाता है। आखिर मैं भी तो एक पुरुष ही हूं ! लेकिन कभी-कभी तुम्हारे भीतर का द्वन्द्व, तुम्हारे बनावट की दरारें, मुझे परेशान भी करती हैं....तुमने अपनी मां का जीवन बहुत करीब से देखा था। प्रेम के नाम पर उन्हें घुटते देखा था, उनके प्रति अपने पिता की उपेक्षाएँ देखी थीं। मुझे यह जान कर अच्छा लगा कि तुम खुद को अपनी मां की तरह दुहराना नहीं चाहती थी। तभी तो तुमने अपने विवाह की लक्ष्मण रेखा को महज तीन महीने में ही पीछे छोड़ दिया....तुम्हारे पापा को तुम्हारे मां की रोती हुई आंखें उत्तेजित करती थीं और वे उन्हें उठा बिस्तर तक ले जाते थे। पुरुष दृष्टि से अनुकूलित हो चुकी मां को अपनी तकलीफ से ज्यादा तब पिता की खुशी भली लगती थी....लेकिन दामिनी, तुम तो मां नहीं बनना चाहती थी ! फिर उस दिन अशेष के द्वारा बाल घसीट कर बिस्तर पर रौंदे जाने के बाद अपने आंसू भूल कर तुम दिनों तक कैसे खुश और हल्की रह सकी? तुमने अशेष की इस मान्यता पर क्यों मुहर लग जाने दी कि 'वुमन लाइक ब्रुट्सÓ? मैं सोचना चाहता हूं कि यह सब सच नहीं, तुम जैसी आत्मचेता स्त्री के लिए तो कतई नहीं....लेकिन यह सवाल मुझे बार-बार परेशान करता है कि आखिर यह क्या है, तुम्हारे व्यक्तित्व की दरार, जिसकी जड़ें अनुकूलन में धंसी हैं? अशेष की गफलत? या फिर तुम्हारी मानस-मां का द्वंद्व?

दामिनी, तुम्हारा स्त्री होना, एक मुकम्मल स्त्री होना मुझे आकॢषत करता है। आस्था-अनास्था और प्रेम-घृणा के मारक द्वंद्व के बीच यकीन और भरोसे के रसायन से बनी तुम जिस तरह पितृसत्ता की बनाई मिथ्या अवधारणाओं को कदम-दर-कदम चुनौती देती हो, वह काबिले तारीफ है। तुम्हें अपनी मां का दुख ही नहीं सालता बल्कि अशेष की पत्नी उमा का भी ध्यान रहता है। अशेष से यह कहते हुए कि ''प्यार पर अपना वश नहीं होता, मगर जिम्मेदारी....वह निभानी होती हैहर हाल में! उमा, बच्चे तुम्हारी जिम्मेदारी हैं। मेरे लिए यदि तुम उनकी अवहेलना करने लगे तो मैं स्वयं को दोषी मानने लगूंगी....ÓÓ तुम्हारे चेहरे पर जो संजीदगी तुम्हारी मानस-मां ने देखी थी वह मेरी आंखों तक भी पहुंची है। लेकिन बाद में तो तुम जैसे उमा को भूल-सी ही गईं? तुम कह सकती हो कि यह तुम्हारा नहीं तुम्हारी मानस-मां के अधिकार क्षेत्र की बात है। चलो मान लेता हूं। लेकिन क्या तुम्हें यह नहीं लगता कि तुम्हारी जि़ंदगी को औपन्यासिक विस्तार देते हुए तुम्हारी मानस-मां को तुम्हारे कन्सर्न और अशेष की उपेक्षा के बीच उमा की जि़ंदगी में कुछ और गहरे उतारना चाहिए था? ये बातें शायद तुम्हें अच्छी लग रही हों लेकिन मुझे इतना भरोसा है तुम पर कि यदि कभी मौका मिला तो हम दोनों साथ-साथ उमा के घर चलेंगे यह देखने कि वह किस हाल में है....बोलो चलोगी ? और हां, मुझे उस समय भी तुम पर नाज़ हुआ जब अपने प्रेमी अशेष को उसी के घर में एक दूसरी लड़की रेचल के साथ आपत्तिजनक अवस्था में देख कर भी तुम्हारे भीतर रेचल के प्रति कोई कटुता नहीं आई....तुमने तो उसकी तरफ मुड़ के देखा भी नहीं था....तुम्हें पता है कि जब अपना ही सिक्का खोटा हो तो दूसरों को क्या दोष देना! रेचल तो रेचल तुम्हारे मन में अशेष के लिए भी कोई नाराजगी या शिकायत नहीं थी। लेकिन, तुम्हारे भीतर उस वक्त का टूटा-बिखरा था उसमें तुम्हारे भरोसे की आह मुझे साफ सुनाई देती है। हां, तुम्हारा तो यही होना था, तुमने यकीन जो किया था अशेष पर। उस अशेष पर जो पहले ही दिन से तुम्हारी देह के लिए ललचता रहा था, तुम्हारे आगे प्रेम का झूठा व्यामोह रचते हुए, जिसमें तुम उलझती चली गई थी। उसे सिर्फ और सिर्फ तुम्हारे देह की लालसा थी या यूं कहें कि उसका प्रेम देह की परिधि में ही चक्कर लगाकर दम तोडऩे को अभिशप्त था। तुम देह के पार रूह का संधान करती रही और वह देह की दहलीज पर बैठा अपनी वासनाओं, कुंठाओं में ऊभ-चूभ करता रहा। तुम प्रेम में अपना सबकुछ उससे साझा करती रहीअपना अतीत, अपनी पीड़ा, अपने सपने....लेकिन उसे तो जैसे तुम्हारे मन की गहराइयों में उतरने का रास्ता ही नहीं पता था। आखिर पता भी कैसे होता उसकी निगाहें कभी तुम्हारे शरीर से हटी ही नहीं....मुझे दुख होता है यह सोच कर कि तुमने उसे पहचानने में इतनी देर क्यूं कर दी?

अशेष का क्या, वह तो एक टिपिकल मर्द है, जहां मौका मिलेगा रस के संधान में रसातल की तरफ लुढ़कता जाएगा, पकड़े जाने पर रोएगा-गिड़गिड़ाएगा, बीच में घायल शेर की तरह पलटवार भी करने की कोशिश करेगा....लेकिन तुम दामिनी....तुमने यह क्या कह दिया....''बात इतनी-सी है कि अब तक तुम्हीं थे, और अब तुम भी हो!....कि सुन लो जान! मुझसे मत लड़ो, संधि कर लो, समझदारी इसी में है कि तुम मेरी पतलून पलटन में शामिल हो जाओ....'' यहां तक आते-आते मैं एक बार फिर जैसे सवालों से बिंध-सा गया था....क्या प्रेम में छले जाने की बाद की कोई स्त्री उसी पुरुष को साहचर्य का न्योता दे सकती है? यह क्या किया तुमने....जीवन भर जिस व्यवस्था के खिलाफ लड़ती रही अब खुद उसी का शिकार हो रही हो....? क्या 'घाघरा-पलटनÓ का जवाब 'पतलून-पलटनÓ से दिया जा सकता है? लेकिन नहीं....अगले ही पल जब मैंने तुम्हारी आंखों में उतर आये गहरे व्यंग्य और शरारत को देखा तो जैसे तुम्हारी आंखों की नीली द्युति में तंज से भरी तुम्हारी व्यूह रचना दिख गई। और फिर उस चक्रव्यूह में घिरे अशेष का आत्मग्लानि से भरा चेहरा भी....क्लांत, मुरझाया लेकिन आत्मप्रवंचना से उत्पन्न आत्मस्वीकृतियों में डूबा हुआ....''मैं अभिभूत देखता हूं, देखता हूं....एक ही सेज पर हमने अपनी-अपनी वासनाओं को जीया है, फिर मैं कैसे उस सेज की एक सिलवट मात्र बन कर रह गया और वह इससे इतना ऊपर उठ गई!—जैसे हाथ बढ़ाकर स्वर्ग ही छू लेगी। जिस काम को उसने अपने निर्वाण का मार्ग बनाया, वही मेरे लिए कलंक क्योंकर बन गया?ÓÓ

प्रेम में तुम्हारी मां भी छली गई थी। प्रेम में ही तुम भी छली गई। अशेष ने सिर्फ रेचल से संबंध भर नहीं बनाया था उसने प्रेम में तुम्हारी अकंप आस्था और निष्कलुष भरोसे की हत्या की थी। तो क्या यह उपन्यास एक छल से दूसरे छल तक की यात्रा हो कर रह गया? शायद हो सकता था। यदि तुम रो-पीट कर घुटते हुए अपने जीवन की आहुति दे देती। लेकिन नहीं, तुम तो टूट कर भी टूटी नहीं, बिखर कर भी बिखरी नहीं....बल्कि अशेष के आगे खड़ी रहीआईना बन कर जिसमें अपने चेहरा पहचानते ही वह आपादमस्तक आत्मग्लानि से भर गया....अशेष की नौकरी, उसका धर्म, उसके ओहदे आदि के बारे में जानने के बजाय उसे जानने की कोशिश में प्रेम की जो यात्रा तुमने शुरू की थी उसमें तुम भले हार गई लेकिन अपनी मां को दुहरा कर तुमने यह जरूर साबित कर दिया कि प्रेम और आस्था की तुम्हारी अवधारणा किसी की दया या सहानुभूति का मोहताज नहीं। कि तुम्हारी आस्था और तुम्हारे स्वाभिमान के रेशे से बुनी गई यह एक आधुनिक जीवन शैली रेशे से बुनी गई यह एक आधुनिक जीवन शैली है जिसके मूल में आस्था है लेकिन वर्जना नहीं, आत्मिकता को छूती हुई सूक्ष्म ऐन्द्रिकता है लेकिन देह का दमघोंटू लिजलिजापन नहीं।

अशेष से ही पता चला कि तुम झोपड़पट्टï के बच्चों को पढ़ाती हो, नारी निकेतन से भी कुछ वास्ता है तुम्हारा। लेकिन तुम्हारी मानस-मां ने तो जैसे तुम्हारी जि़ंदगी के उस पहलू पर कुछ बोलने की कसम ही खा ली थी। मेरा यह सवाल शायद फिर से तुम्हें उनके अधिकार क्षेत्र में मेरा अनधिकार प्रवेश लगे। लेकिन तनिक ठहर कर सोचना, तुम्हारे जीवन के उस हिस्से से जुड़कर क्या हम तुम्हें कुछ और समग्रता में नहीं जान पाते....? मैंने शुरू में जिस सत्ता विमर्श की बात की थी उसे समझने के कुछ और सूत्र तुम्हारी जि़ंदगी के उस हिस्से में नहीं छिपे हैं....?

किस सोच में पड़ गई तुम....? कहीं मेरी बातों से तुम्हें ऐसा तो नहीं लग रहा कि तुम्हारी मानस-मां की दृष्टि यौनिकता के बृहत्तर अर्थ संदर्भों को नहीं खोज पाई? नहीं, ऐसा नहीं है। तुम्हारे और अशेष के संबंध निजी होकर भी निजी कहां हैं....इसी को तो लैंगिकता की राजनीति कहते हैं। और वो तुम्हारी सहेली मीता, जो नारियल का दूध, पानी, अनानास रस, ह्वïाइट रम और क्रीम मिलाकर दुनिया का सबसे अच्छा कॉकटेल बनाती है....उसे कहना कि उसके सवाल हम मर्दों को असहज तो जरूर करते हैं लेकिन उनमें आईने की-सी सच्चाई है। शादी-तलाक, सभ्यता-संस्कृति, मिथ-इमेज आदि के बहाने उस दिन जो सवाल उसने उठाए थे, वह स्त्री को स्त्री बना दिए जाने के पीछे की बारीक राजनीति और उसके मूल में निहित सत्ता विमर्श को ही तो व्याख्यायित करते हैं। अपनी उस तल्खजवान सहेली को उसकी बेबाकी के लिए मेरा सलाम कहना और अपनी मानस-मां को शुक्रिया कि उन्होंने मुझे तुम से मिलने का मौका दिया। शुक्रिया तो मुझे तुम्हें भी कहना चाहिए कि तुम अपना कीमती वक्त निकाल कर मेरा इतना लंबा खत पढ़ोगी।
चलते-चलते एक बात और, तुम्हारी नौकरानी उषा को उसके पति ने शराब के नशे में जला कर मार दिया और वह पुलिस को सच भी बता पाई ताकि पति के जेल जाने के बाद उसकी बेटी बेघर हो जाए। उषा की यह हालत देख कर मुझे तुम्हारी मां की याद हो आई। वो मर कर भी कहां मुक्त हो पाई....और क्या उषा का झूठा बयान उसे मुक्त कर पाएगा....नहीं ! मैं जानता हूं, उषा को बचा पाने की विवशता तुम्हें कचोट रही है, तुम्हें उसकी बेटी की चिंता भी हो रही होगी। मेरा एक आग्रह है तुमसे, नारी-निकेतन जाना मत छोडऩा। तुम्हें और नारी-निकेतन दोनों को एक दूसरे की जरूरत है।
और हां, याद है, एक दिन तुमने ही कहा था कि तुम पंछी हो और आकाश चाहती हो, सारा आकाश। उड़ान और प्रेम में अपनी आस्था यूं ही बनाए रखना, तबतक जबतक तुम्हें तुम्हारे हिस्से का आकाश नहीं मिल जाता....तुम्हारी मां और उषा के हिस्से का भी।
तुम्हारा


राकेश


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कथाकार - आलोचक राकेश बिहारी
संपर्क : एन एच 3/ सी 76, एन टी पी सी विंध्याचल, पो. विंध्यनगर, जिला संगरौली-486885 (मध्य प्रदेश)
09425823033





( यह समीक्षा हंस से साभार)